सबक सीखने से इन्कार करती कांग्रेस: विपक्ष की प्राथमिकताएं गलत हों तो वह लोकतंत्र का अहित कर सकता है
कांग्रेस में बढ़ती उथल-पुथल ने उसके भविष्य को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। कुछ खबरों में दावा किया गया है कि कांग्रेस नेताओं ने पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन और पारदर्शी सांगठनिक चुनावों के लिए एक पत्र लिखा है। एक वक्त कांग्रेस को देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी कहा जाता था, लेकिन राष्ट्रीय और राज्यों के चुनावों में निरंतर पराजय के कारण आंतरिक कलह और पार्टी के दिग्गज नेताओं का पलायन बेहद आम हो गया है।
कांग्रेस में उथल-पुथल, विद्रोह और विभाजन की कहानी 1950 के दशक में ही शुरू हो गई थी
कांग्रेस में उथल-पुथल, विद्रोह और विभाजन की कहानी बहुत पुरानी है। यह सिलसिला आजादी के तुरंत बाद 1950 के दशक में ही शुरू हो गया था। उसके बाद से इस पार्टी में 70 बार से भी ज्यादा विभाजन हो चुका है। देश में तमाम अन्य दलों का उभार उसी की कीमत पर हुआ है।
कांग्रेस नेतृत्व ने वक्त के हिसाब से पर्याप्त कदम उठाने में की हीलाहवाली
हाल के वर्षों में कांग्रेस का संकट और गहरा गया है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पार्टी नेतृत्व ने वक्त के हिसाब से पर्याप्त कदम उठाने में हीलाहवाली का परिचय दिया। तमाम लोगों के मन में संदेह गहरा रहा है कि जब पार्टी के प्रतिभाशाली नेता ही इस डूबते जहाज से किनारा कर रहे हैं तब कांग्रेस का अस्तित्व लंबे समय तक कायम नहीं रहेगा। भले ही कांग्रेस अपनी परेशानियों को लिए बाहरी कारणों पर कितना ही ठीकरा क्यों न फोड़ती रहे, लेकिन कड़वी हकीकत यही है कि पार्टी आलाकमान का कुप्रबंधन ही उसके गर्त में जाने का इकलौता कारण है।
कांग्रेस देश पर अपनी सियासी पकड़ खोती जा रही
बीते कई वर्षों से कांग्रेस देश पर अपनी सियासी पकड़ खोती जा रही है, लेकिन पार्टी के वारिस इसके कारणों की पड़ताल करने के बजाय प्रधानमंत्री मोदी के प्रत्येक फैसले और नीति में नुक्स निकालने में लगे हैं। वे लगातार प्रधानमंत्री का अपमान कर रहे हैं। मतदाताओं को यह महसूस हुआ है कि निरंतर अनियंत्रित आलोचना राजनीतिक समझ के अभाव से उपजी है। यह तर्कहीनता को भी रेखांकित करती है
नकारात्मक प्रवृत्ति मतदाताओं के मन से मेल नहीं खाती
यह देखना खासा दिलचस्प है कि भाजपा सरकार की आलोचना में अन्य विपक्षी दलों ने अपनी भाषा और तेवर में आखिर कैसे बदलाव किया है? अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री पर अनावश्यक हमलों की बौछार की, लेकिन अब उन्होंने इस नकारात्मक प्रवृत्ति का परित्याग कर दिया है, क्योंकि वह मतदाताओं के मन से मेल नहीं खाती। हालिया दौर में उनका रुख बारीकियों और संतुलन से लैस है, जिससे वह एक तार्किक विपक्षी नेता के रूप में उभरे हैं।
विपक्षी नेताओं ने मोदी सरकार के विरोध को लेकर एक नई रणनीति बनाई
विपक्षी नेताओं ने मोदी सरकार के विरोध को लेकर एक नई रणनीति बनाई है। इसमें वे राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों पर आलोचना करने से बचने के साथ ही उन मसलों पर विरोध को लेकर भी एहतियात बरत रहे हैं जिन पर मोदी सरकार बढ़िया प्रदर्शन कर रही है। इस मामले में तमाम नाम सामने आते हैं। एक अच्छा उदाहरण ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का है जो बड़ी चतुराई से राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रधानमंत्री से उलझने से बचते हैं, लेकिन राज्य के मसलों को लेकर जरूर भाजपा को घेरते हैं
मोदी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री के विरोध को लेकर पार्टियां अपनी रणनीति में सुधार कर रही हैं
स्पष्ट है कि जब मोदी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री के विरोध का मामला आता है तो पार्टियां पूरी सतर्कता के साथ अपनी रणनीति में सुधार कर रही हैं। हालांकि कांग्रेस ऐसा करने में नाकाम रही है, जिसकी कीमत उसे बार-बार राष्ट्रीय और राज्यों के चुनाव हारने के रूप में चुकानी पड़ी है। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता निजी बातचीत में इसकी टीस भी जाहिर करते हैं। खासतौर से उनका संकेत 2019 के चुनाव में उन नाकाम रणनीतियों की ओर होता है जिसमें भाजपा 2014 की अपनी जीत के मुकाबले और भी भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई।
कांग्रेस अपने काबिल नेताओं और युवा सदस्यों की प्रतिभा का दमन करती है
कांग्रेस के दयनीय प्रदर्शन का बुनियादी कारण यह भी है कि वह अपने काबिल नेताओं और खासतौर से पार्टी के युवा सदस्यों की प्रतिभा का दमन करती है। इरादतन अपनाई जाने वाली इस रणनीति के चलते जब काबिल युवा नेताओं को उनके परिश्रम का प्रसाद नहीं मिलता तो वे पार्टी को छोड़ना ही बेहतर समझते हैं। स्वाभाविक है कि अन्य राजनीतिक दल भी भीतरी प्रतिस्पद्र्धा को नियंत्रित करने और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए ऐसी नीति अपनाते हैं, लेकिन तथ्य यही है कि इसका सबसे अधिक खामियाजा खुद कांग्र्रेस को भुगतना पड़ा है।
भाजपा में प्रतिभाओं को निखारने की संस्कृति है
दूसरी ओर भाजपा में प्रतिभाओं को सक्रिय रूप से निखारने की संस्कृति है ताकि सिर्फ किसी एक का नहीं, बल्कि सभी का उभार संभव हो सके। देश के विभिन्न हिस्सों में दमदार मौजूदगी के साथ एक राष्ट्रीय दल के रूप में भाजपा को लगातार मिल रही सफलता में इस पहलू का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। आंतरिक चुनावों के लिए पार्टी में एक पारदर्शी और न्यायोचित व्यवस्था बनी हुई है। भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के तमाम नेता इसकी मिसाल हैं, जिन्होंने बूथ स्तरीय सदस्य के तौर पर शुरुआत की थी। इन उदाहरणों को देखते हुए पार्टी का प्रत्येक सदस्य उत्साहित होने के साथ ही पार्टी की बेहतरी के लिए प्रोत्साहित भी होता है, क्योंकि उसे पता है कि उसकी प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलेगा।
सशक्त विपक्ष की प्राथमिकताएं ही गलत हों तो वह लोकतंत्र का हित से अधिक अहित कर सकता है
जहां तक लोकतांत्रिक व्यवस्था की बात है तो तमाम लोग यह मानते हैं एक स्वस्थ लोकतंत्र को सशक्त विपक्ष की दरकार होती है। वहीं कुछ यह दलील देते हैं कि यदि सशक्त विपक्ष की प्राथमिकताएं ही गलत हों तो वह लोकतंत्र का हित से अधिक अहित कर सकता है। पार्टी के निहित स्वार्थी नेताओं का ध्यान राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों के बजाय इस पर अधिक केंद्रित होता है कि वे कैसे अधिक से अधिक ताकत हासिल कर सकते हैं? वैचारिक दृष्टिकोण से भले ही कोई कुछ सोचे, लेकिन व्यावहारिक नजरिये से तो यही लगता है कि कांग्रेस द्वारा खाली की जाने वाली सियासी जमीन पर उन विपक्षियों का काबिज होना स्वाभाविक है जो कहीं अधिक काबिल हैं।
सैद्धांतिक दृष्टिकोण वाला मजबूत विपक्ष लोकतंत्र की संपदा सरीखा होता है
विपक्ष के इस पराभव में दो पहलू जरूर बदलाव ला सकते हैं। एक तो पार्टी नेतृत्व और दूसरी सिविल सोसायटी। जहां नेतृत्व खुद अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहा है वहीं सिविल सोसायटी संरक्षण के लिए कांग्रेस पर निर्भर है और वह किसी भी किस्म की मदद करने में अक्षम है। सैद्धांतिक दृष्टिकोण वाला मजबूत विपक्ष लोकतंत्र की संपदा सरीखा होता है। सभी पक्षों द्वारा उसे समर्थन दिया जा सकता है और दिया भी जाना चाहिए। यह सही समय है कि लोग महसूस करें कि मजबूत विपक्ष उस पुराने ढांचे को जीवंत करने की कोशिश से नहीं बनेगा जो अर्से पहले ही दम तोड़ चुका है।
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